बुधवार, 12 सितंबर 2007

तूफान की आहट

मन के किसी वीरान तट पर-
लंगर डाले खड़ीं-
उम्मीद की कुछ जर्जर नौकाएं-
आवारा लहरों और-
दहशतगर्द तूफानों से बेपरवाह-
चंद्रकलाओं के बहकावे में,
तटबंधों को तोड़ती-
और-
रेत पर उगे सपनों को,
तार - तार कर देने वाली-
मगरुर और बदहवास हवाओं पर-
नजरें गड़ाए बैठी हैं-
मालूम नहीं, पर लगता है-
दीवार पर चढ़ने की कोशिश में-
बार बार गिरने वाली मकड़ी-
और वक्त बदलने की किस्सागोई,
किसी ने चुपके से-
इनके जेहन में डाल दी है।
सब कुछ शांत है-
स्तब्ध और निश्चेष्ट,
शायद-
तूफान की आहट है।

रविवार, 9 सितंबर 2007

शार्ट कट कट्स यू शार्ट, शार्ट....शार्ट

शार्ट कट कट्स यू शार्ट, शार्ट..शार्ट। बाबूजी ये जुमला अक्सर दुहराया करते हैं। पर अब काफी वक्त बीत चुका है। याद है अच्छी तरह। वो इंटरमीडिएट के दिन थे जब बाबूजी के मुहावरे पत्थर की लकीर जैसे लगते थे। ढेर सारे मुहावरे तो ऐसे थे जो मौके बेमौके याद आ जाते थे। लेकिन घर-बार छोड़ने के बाद की जिंदगी में जो कुछ देखा-सुना, महसूस किया उनसे सबसे ज्यादा आहत हुए तो वो हैं बाबूजी के मुहावरे। ऐसे मुहावरे जो शायद बने तो थे सतयुग के लिए पर स्टाक क्लियर नहीं हुआ लिहाजा आज के युग तक चले आए।
सभी जुमलों का जिक्र करुंगा तो कई एपिसोड में लिखना होगा। इसलिए आज सिर्फ एक जुमले की बात करते हैं जिस पर मुझे काफी भरोसा था। बाबूजी को पता चल जाए कि कोई इम्तहान में पास होने के लिए किताब और नोट्स पढ़ने की बजाए कुंजी या गाइड की मदद लेता है तो बरबस ही बाबूजी बोल पड़ते थे ....शार्ट कट कट्स यू शार्ट, शार्ट...। लेकिन जिंदगी में कई वाकए पेश आए जिन्होंने इस मुहावरे को जमकर ठेंगा दिखाया। मसलन इंटर की परीक्षा में ही उस लड़के को बायलोजी, केमिस्ट्री और फीजिक्स के प्रैक्टिकल में सबसे ज्यादा नंबर मिले जिसने कभी लैब के दर्शन की जहमत तक नहीं उठाई थी। उसने बस अपने दूर के विधायक मामा से कालेज के प्रिंसिपल को एक फोन करा दिया था। आजकल वो एक दूसरे इंटर कालेज में लैब इंचार्ज है।
इसके बाद जब बीए के लिए इलाहाबाद पहुंचा तो वहां भी शार्ट कट अपनाने वालों की कामयाबी ने हैरत से भर दिया। ये बताने की जरुरत नहीं है कि इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में दाखिला लेने वाले 80 फीसदी छात्रों की नजर नीली बत्ती पर होती है। और जिस वक्त मैंने ग्रेजुएशन किया.. तैयारी के लिहाज से यूनिवर्सिटी सबसे बेहतर माहौल मुहैया करती थी। ना तो अटेंडेस की कोई चिंता और न ही सिलेबस की फिक्र। ज्यादातर लड़के इम्तहान शुरु होने से एक महीने पहले 10 सवाल guess कर लेते थे जिनमें से पांच का आना तय था। पास होने का सुपरहिट शार्टकट।दूसरों की बात छोड़िए जनाब...बीए में मैंने फिलासफी और हिस्ट्री की पढ़ाई तो जमकर की....क्लासेज अटेंड किए, नोट्स बनाए लेकिन दो साल में हिंदी साहित्य का एक भी लेक्चर नहीं अटेंड किया। और सच बताऊं तो नंबर उतने ही मिले जितना कि रेगुलर क्लास करने वालों को। खैर यही बात मेरे लिए परेशानी की वजह भी है। क्योंकि बहुत से मेरे साथियों ने यूनिवर्सिटी का मुंह तक नहीं देखा....और माशा अल्लाह उन्होंने नंबर भी जमकर बटोरे। ऐसे दोस्तों को यूपीएससी की गाड़ी भले ही नसीब नहीं हुई पर क्लास 3 की कई मलाईदार नौकरियों में उन्होंने अपनी जगह आखिरकार बना ही ली।लेकिन मुझे लगता रहा कि अभी तो इनकी जिंदगी शुरु ही हुई है। हो सकता है कुछ वक्त बाद उन्हें शार्ट कट का खामियाजा उठाना पड़े। ऐसी बहुत सी केस स्टडीज हैं जिन पर मैं लगातार नजर बनाए हुए हूं.....पर अभी तक तो...। इन सारे अनुभवों के बाद एक फर्क तो आया....मैं अक्सर ये जुमला बोलते बोलते रुक जाया करता था। पर इससे पूरी तरह यकीन कभी नहीं उठ पाया। कहीं न कहीं किसी कोने में ये बात कुछ इस तरह जम गई थी कि पिघलती ही नहीं थी।
खैर, जैसे-तैसे पढ़ाई लिखाई के दिन कट गए। और हम आ पहुंचे दिलवालों के शहर दिल्ली। देश के सबसे बड़े पत्रकारिता संस्थान में दाखिला लिया और सामना हुआ एक ऐसे शख्स से जिससे मिलने के बाद इस जुमले पर से बचा खुचा विश्वास एक झटके में खत्म हो गया। पत्रकारिता के बजाए अपनी ब्रांडिंग और नेटवर्किंग पर गूढ़ ज्ञान परोसने वाले गुरुजी की बात को जिंदगी में उतारने वाले मेरे कई बैचमेट आजकल बड़े ब़ड़े चैनलों में चांदी काट रहे हैं....। आलम ये है कि इस फन (शार्टकट) में माहिर बहुत से लोग महज ३ से ४ साल की नौकरी में इतनी तनखाह उठा रहे हैं जो १२ साल प्रिंट में काम करने के बाद पहुंचे वरिष्ठ पत्रकारों को भी नसीब नहीं है। एक पूरी जमात है जिसे पता है कि काम करने से ज्यादा जरुरी है काम करते हुए दिखाई देना....। मुझसे ये बात एक बेहद अजीज दोस्त ने कही थी हालांकि वो खुद ऐसे शार्ट कट मेथड्स अपनाने में नाकाम रहा है। कुल मिलाकर शार्ट कट की शान में जितना भी कहा जाए कम ही होगा।बार- बार मन करता है कि यकीन करुं कि शार्ट कट कट्स यू शार्ट, शार्ट......शार्ट लेकिन तभी एक शख्स का चेहरा याद आ जाता है जिसे ऊंची तनखाह पर चैनल में नौकरी सिर्फ इसलिए मिल गई क्योंकि उसका ब्लडग्रुप....चैनल में काम करने वाले एक आला अधिकारी की मां के ब्लडग्रुप से मैच कर गया, जो अस्पताल में भर्ती थीं। पर क्या ये शार्ट कट था.....शायद हां.....शायद नहीं.....अजी कुछ समझ में नहीं आ रहा.....।

शुक्रवार, 7 सितंबर 2007

लो चुप्पी तोड़ दी मैंने....!

काफी दिनों से कुछ भी नहीं लिखा। दिमाग और अंगुलियों के बीच कशमकश जारी है। कल भी कुछ कुछ लिखने की कोशिश की थी। बहुत कुछ लिखा...फिर मिटाया...फिर से लिखा लेकिन आखिरकार हाथ कुछ भी न लगा। ऐसा पहले नहीं होता था। जो भी मन में आता था बेखौफ पन्ने पर अपनी शक्ल ले लेता था। लेकिन बीते पांच सालों में काफी कुछ बदल गया है।
साल 2002 में इलाहाबाद से दिल्ली आया था। जी नहीं, पत्रकारिता का कोई शौक या जूनून इधर नहीं लाया। दरअसल ग्रेजुएशन पूरा करते हुए जिंदगी के महज 19 साल ही जाया कर पाया था। पहला अटेंप्ट देने के लिए 21 साल का होना जरुरी है और इसी मजबूरी ने मेरी जिंदगी बदल दी। अपनी तैयारी पर इतना ज्यादा यकीन था कि दो साल बिताना बहुत मुश्किल लगने लगा और यहीं पर एक गलती (?) हो गई। आईआईएमसी का फार्म डाला और साल भर बाद खुद को एक चैनल पर पीटूसी करते पाया।
लेकिन इलाहाबाद से दिल्ली के इस सफर में काफी कुछ था जो कहीं छूट गया। इलाहाबाद में महीने के आखिरी दिनों में ममफोर्डगंज के फव्वारा चौराहे पर जाने में डर सा लगता था....अगर कोई दोस्त साथ में हो तो भले ही बातें मार्क्स, लेनिन या चेग्वेरा की हो रही हों....लेकिन मन अपनी खाली जेब और चाय से भरी केतली के बीच ही कहीं फंसकर रह जाता था। कहीं ससुरा चाय पीने का मूड न बना ले....। तीन सालों में शायद ही कोई महीना बीता होगा जब ये नौबत नहीं पैदा हुई होगी। पर हां, ये अभाव सिर्फ जेब तक था। दोस्तों का एक गिरोह था जो कंपटीशन देने वाले तमान पढ़ाकुओं से कुछ अलग था। हममें शायद ही कोई धन्ना सेठ रहा हो जिसने अभाव को करीब से न जाना हो लेकिन हमारी सोच, हमारी बातों और "बकईती" में ये अभाव कभी अपनी जगह नहीं बना पाया। जेब में एक कौड़ी न हो....पर बातें सवा लाख से कम की नहीं होती थीं।
17-18 साल की उम्र में क्रांति और समाज सुधार की बड़ी बड़ी बातें। कच्ची उम्र में समझ भला कितनी रही होगी....पर ख्वाब बड़े थे....जज्बा था कुछ कर गुजरने का...अपने लिए नहीं...समाज के लिए, अपने वतन के लिए...। बेहद कम उम्र और पढ़ाई लिखाई की नैतिक जिम्मेदारी के बाद भी काफी कुछ किया। हालांकि कई बार लगता है कि सब कुछ एक कोशिश भर थी खुद को भीड़ से अलग रखने की। फिर भी धरना प्रदर्शन, नाटक मंडली का हिस्सा होने, वाल मैग्जीन निकालने, भूकंप में मारे गए लोगों के लिए चंदा जुटाने से लेकर कुछ सामाजिक, सियासी मुद्दों पर गरमागरम बहस करने तक की सारी कवायद कुछ अलग थी।
हम सोचते थे.....कुछ वक्त ही सही पर हम सचमुच परेशान होते थे...आखिर हमारे आस पास क्या हो रहा है? हम कहां जा रहे हैं...और हम क्या कर सकते हैं। बहुत सारे सवालों से लड़ते थे, जूझते थे....कुछ भी हासिल नहीं होता था ये बात अलग है। कई बार लगता था हम अपने घरवालों को धोखा दे रहे हैं.....कितनी मुश्किल से महीने का खर्च भेजा जाता था ताकि पढ़ लिखकर हम बड़े आदमी बन सकें.....और हम बेकार की चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं। खैर मध्यमवर्गीय मजबूरियों के बावजूद हमने सोचना, बहस करना, विरोध करना और लिखना नहीं छोड़ा। अपनी बात कहने के लिए हमारे पास न तो कोई बड़ा प्लेटफार्म था, ना ही कोई जानी मानी पत्रिका या अखबार जो हमारे अधकचरे विचारों को जगह दे....कुछ था तो बस जूनून सच बोलने का, अपना हक छीनने का और गलत बात के खिलाफ मोर्चा खोलने का। हो सकता है ये सब कुछ स्यूडो इंटलेक्चुअल होने की निशानी रही हो या फिर हमारा बचपना रहा हो पर उस वक्त हम खुलकर सांस लेते थे, मन के किसी कोने में कोई डर नहीं था। सोना, खाना-पीना, पढ़ना और बाकी बचा समय कुछ सोचने में....चिंता करने में जाया करते थे। सब कुछ करने के बाद भी कोई विकल्प, कोई समाधान या कोई रास्ता नजर नहीं आता था पर फिर भी वो जिंदगी अच्छी थी हम जी रहे थे अपने खुले आकाश में...। यही वो वक्त था जब लिखते हुए कुछ सोचना नहीं पड़ता था....बेशक अंगुलियों को कीबोर्ड की कोई भनक नहीं थी पर कलम जहर उगलती थी.....और कई बार कराहती थी अपनी बेबसी पर....लेकिन ऐसा नहीं हुआ कि कुछ कुछ लिखकर मिटाना पड़ा हो।
उस वक्त लगता था जब हमारे पास पैसा होगा...ताकत होगी, बड़ा प्लेटफार्म होगा तो शायद अपनी बात और दमदार तरीके से रख पाएंगे। लगता था हमारे चीखने चिल्लाने से और कुछ हो न हो... हमारी तरह कुछ और लोग भी...."हम दो हमारे दो"....से बाहर की दुनिया के बारे में सोचेंगे...चिंता करेंगे। इतने से भी कुछ न कुछ बदलेगा। लेकिन अफसोस....बाकी कुछ नहीं बदला, हम बदल गए। पैसा, रुपया, ताकत, प्लेटफार्म...सब कुछ है पर वो जज्बा न जाने कहां गुम हो गया। शायद ही कभी अपनी नौकरी, अपने काम और शादी के लिए परेशान कर रहे घरवालों की दलीलों से ज्यादा कुछ सोच पाता हूं....देश, दुनिया, समाज और तमाम दूसरे मुद्दे कभी कभार एनडीटीवी के किसी कार्यक्रम में सुलगते दिख जाते हैं तो कुछ वक्त उनका लुत्फ जरुर उठा लेता हूं.....यकीन मानिए बहुत मजा आता है।
आज से पांच साल पहले तक सोचा ही नहीं था....किस रंग की शर्ट पर कौन से रंग का पैंट अच्छा लगेगा...पिज्जा हट के मुकाबले डोमिनोज के पिज्जा का जायका कैसा होगा.. इनकम टैक्स रिटर्न क्या होता है? पालिसी, म्युचुअल फंड लेने से रीबेट मिलता है या नहीं... कौन सा बैंक कम दर पे होम लोन देता है.....कौन सी पेंशन स्कीन लेने से बुढापा अच्छे से कट जाएगा...और भी न जाने क्या क्या। समाज के दूसरे तबकों के लिए लड़ने की बात तो छोड़िए जनाब....इतनी भी हिम्मत नहीं है कि अपने Boss से पूछ लूं कि किसी Employee से लगातार साल भर नाइट शिफ्ट में काम करवाना कहां की मानवता है....। सचमुच महज पांच सालों में दिल्ली ने बहुत कुछ छीन लिया है मुझसे...। जेब भरी है पर दिमाग खाली है....कुछ है तो बस नौकरी....नौकरी.....और नौकरी। अब तो इतना भी सोचने की जहमत नहीं उठाता हूं कि आखिर चैनल पर गरीब, गंदे कपड़े पहनने वालों और झोपड़ी में रहने वालों की तस्वीरें दिखाने की मनाही क्यों है....?

रविवार, 29 अप्रैल 2007

ये प्रयास है....को लाइन पर लाने का!

"खुल्ले में करने का शौक नहीं है हमें, पर क्या करें इंसान पर तरह तरह के प्रेशर होते हैं, आप पर प्रेशर पड़ेगा तो क्या आप रुक जाइएगा...नहीं, कन्ना (करना) पड़ेगा..ये प्रयास है पब्लिक प्लेसेज पर सू सू करने वालों को लाइन पर लाने का.." अगर आपने ये एड किसी सिनेमाघर में नहीं देखा हो तो रेडियो पर जरुर सुना होगा..और नहीं भी सुना तो क्या फर्क पड़ जाता है आप लाइन पर थोड़े ही आने वाले हैं...सचमुच प्रेशर में करना तो पड़ ही जाता है। वैसे भी इतने बड़े शहर में कहां कहां ढ़ूंढते फिरेंगे सार्वजनिक शौचालय। और अगर सार्वजनिक शौचालय मिल भी जाए तो खुल्ले एक रुपए कहां से लाएंगे आप...और एक रुपए का सिक्का हो भी तो बदबू से भरे शौचालय में 'करना' भला अच्छा लगता है क्या? आप खुद ही याद कर लीजिए जहां जहां भी आपने नजर बचाकर 'किया' है, वो जगह कितनी साफ सुथरी और खुले वातावरण के बीच रही है..और आपको इस बात की भी टेंशन नहीं रही कि जेब में एक रुपए का सिक्का है भी या नहीं। साथ ही आप एक और चीज से बच जाते हैं..याद करिए ऐसा नहीं कि आपको मालूम नहीं। क्या कहा..याद नहीं आ रहा..नहीं जनाब याद तो खूब आ रहा है पर आप बताना नहीं चाहते। चलिए ये जिल्लत हमीं उठा लेते हैं...अक्सर सड़क किनारे बने एमसीडी के पेशाबघर (याद रहे एनडीएमसी नहीं एमसीडी)में आप बेतकल्लुफी फरमाने के लिए पहुंचते हैं और काफी देर से बने 'प्रेशर' से निजात पाते हुए ज्यों ही 'चरम सुख' की हालत में पहुंचते हैं आपकी नजर ऐसे पोस्टर या पैंफलेट्स पर पड़ जाती है जिस पर किसी ना किसी बाबा या हकीम साहब की शान में कसीदे पढ़े गए होते हैं। यहां तक तो ठीक है पर उस पर लिखे कुछ अल्फाज आपको सोचने के लिए मजबूर कर देते हैं.. मसलन 'अगर आप बचपन की गलती...वगैरह..वगैरह'। और आप न चाहते हुए भी या तो अपने अतीत को कुरेदकर मन को तसल्ली देने के लिए जिंदगी के उन तमाम लम्हों को याद करने में जुट जाते हैं जब आपसे गलती होते होते रह गई ( या आपको गलती करने का मौका नहीं मिल पाया ) या फिर अपनी मर्दानगी को चुनौती देने वाले उस पैंफ्लेट का क्रिया कर्म कर डालते हैं (फटे हुए पैंफ्लेट देखकर इस महान कार्य को अंजाम देने वाले की मन:स्थिति के बारे में मैं इससे बेहतर अंदाजा नहीं लगा पाया)। बहरहाल शौचालय में पेशाब करने के बाद कुछ देर के लिए ही सही पर आपका बैरी मन बेकार की चीजों की ओर कदमताल करने लगता है और देश, दुनिया और समाज के बारे में सोचते हुए जाया होने वाला आपका कीमती समय बेहद फालतू बातों (अगर आप शादीशुदा हैं तो मेरे 'बेहद फालतू' शब्द का मतलब 'बेहद जरुरी' से निकालें)पर सोचते हुए खर्च हो जाता है। हालांकि मेरा ये भी मानना है कि बहुत से लोग ऐसे शौचालयों का इस्तेमाल दरियागंज की किसी गली का पता लगाने के लिए भी करते होंगे..(भगवान उनकी आत्मा को शांति दे)। बहरहाल विषय से भटकाव के लिए क्षमा प्रार्थी हूं.. हम बात कर रहे थे शौचालय में पेशाब करने से होने वाले नुकसान की। अब एक बार अगर किसी का मन भटक गया तो सुबह से लेकर शाम तक वो न चाहते हुए भी ऐसी ही किसी बात पर चिंतन करता रहता है जो सही और गलत दोनों ही दिशाओं में हो सकता है। अगर उसका ये भटकाव सही दिशा में भी हुआ तो वो सोचता है कि आखिर लड़कियां इतने तंग कपड़े पहनती ही क्यों हैं..बलात्कार तो होगा ही। या फिर उसे लगता है कि देश में सेक्स शिक्षा नहीं दिए जाने की वजह से ही भ्रूण हत्या के मामलों में इजाफा हो रहा है..वो ये भी सोच सकता है कि देश में gays के साथ बड़ी नाइंसाफी हो रही है..आखिर इसमें उनकी क्या गलती है कि उनकी दिलचस्पी अपनी ही बिरादरी में हो गई..अपनी पैदाइश से पहले खुद की जीनोम संरचना उनके हाथ में थोड़े ही थी। ये उस इंसान की हालत है जिसका मन उस मुए पैंफ्लेट की वजह से भटकने के बाद भी सही दिशा में जाता है..अब इस बात का अंदाजा लगाना आपके लिए मुश्किल नहीं है कि अगर उसका मन गलत दिशा में जाता तो उसके मन की किवाड़ के भीतर कैसे कैसे महान विचार अपनी तशरीफ ले आते। खैर इसमें इन दोनों ही की ही कोई गलती नहीं है...गलती तो है पैंफ्लेट लगाने वाले की पर वो भी बिचारा क्या करे..उसे तो खुल्ले में ऐसे पैंफ्लेट चिपकाते हुए शर्म आती है लिहाजा उसने सार्वजनिक शौचालय या पेशाबघर को सबसे मुनासिब जगह समझा। ले देकर गलती उसकी है जिसने ये पेशाबघर बनाए...बेकार में इतने पैसे खर्च किए और कोई फायदा भी नहीं...अगर उन्होंने ये महान काम नहीं किया होता तो भला टीवी चैनल वाले एड बनाकर उन लोगों का मजाक कैसे उड़ा पाते जो खुल्ले में 'करते' हैं। समझना चाहिए उन्हें इंसान पर तरह तरह के प्रेशर होते हैं..किसी को खुल्ले में करने का शौक थोड़े ही न होता है...और क्या उन पर ये प्रेशर पड़ेगा तो नहीं 'करेंगे'? कन्ना पड़ेगा.....



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